भारत का उपराष्ट्रपति चुनाव (Uparashtrapati Chunav) हर पाँच साल में सुर्खियाँ बटोरता है। यह पद दिखने में भले ही दूसरे स्थान पर हो, लेकिन इसका संवैधानिक और राजनीतिक महत्व किसी भी तरह से कम नहीं है। उपराष्ट्रपति चुनाव केवल एक औपचारिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह देश की राजनीतिक रणनीति (Political Strategy), संसदीय संतुलन (Parliamentary Balance) और संवैधानिक गरिमा (Constitutional Dignity) का आईना बन जाता है।

क्या आप जानते हैं कि उपराष्ट्रपति न केवल राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में कार्यवाहक बन सकते हैं, बल्कि वे राज्यसभा (Rajya Sabha) के सभापति भी होते हैं? यानी संसद के उच्च सदन में बहस, विधेयक और विपक्ष-सत्ता पक्ष के बीच संवाद की ज़िम्मेदारी उन्हीं पर टिकी होती है। यही वजह है कि हर दल उपराष्ट्रपति चुनाव को बेहद गंभीरता से लेता है।
उपराष्ट्रपति पद की संवैधानिक पृष्ठभूमि
भारतीय संविधान (Indian Constitution) ने उपराष्ट्रपति को विशेष स्थान दिया है।
- वे दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक पदाधिकारी हैं।
- उनका चुनाव संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित और मनोनीत सदस्यों द्वारा किया जाता है।
- राष्ट्रपति के असमर्थ होने पर वे कार्यवाहक राष्ट्रपति की भूमिका निभाते हैं।
मुख्य जिम्मेदारी:
- राज्यसभा के सभापति के रूप में सत्र का संचालन।
- विधेयकों पर चर्चा सुनिश्चित करना।
- विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच संतुलन बनाए रखना।
👉 यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि उपराष्ट्रपति केवल एक “रबर स्टाम्प” नहीं हैं। उनका कार्य प्रत्यक्ष रूप से लोकतंत्र की गुणवत्ता पर असर डालता है।
क्यों है उपराष्ट्रपति चुनाव राजनीतिक रूप से अहम?
हालाँकि संविधान उन्हें निष्पक्ष रहने की अपेक्षा करता है, लेकिन उपराष्ट्रपति चुनाव हमेशा से सत्ता और विपक्ष की ताक़त का पैमाना रहा है।
- अगर सत्ता पक्ष मज़बूत बहुमत में है, तो वह इस पद का इस्तेमाल राजनीतिक संदेश देने में करता है।
- अगर सरकार कमजोर है, तो विपक्ष इस चुनाव को एकजुटता दिखाने का मंच बनाता है।
उदाहरण:
- अतीत में कई बार उपराष्ट्रपति चुनाव ने यह दिखाया कि संसद में सत्ता पक्ष और विपक्ष की ताक़त कितनी संतुलित है।
- कभी यह पद सहयोगी दलों को साधने का ज़रिया बना, तो कभी क्षेत्रीय अस्मिता (Regional Identity) का प्रतीक।
दक्षिण भारत और उपराष्ट्रपति चुनाव
हाल के वर्षों में यह चुनाव अक्सर दक्षिण भारत (South India) की राजनीति से भी जुड़ गया है।
- तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना जैसे राज्यों से उम्मीदवार चुनना केवल व्यक्ति की योग्यता का मामला नहीं रहा।
- इसके पीछे हमेशा यह संदेश छिपा रहता है कि राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिण की भूमिका को मान्यता दी जा रही है।
👉 सवाल यह है कि क्या उपराष्ट्रपति चुनाव अब संवैधानिक प्रक्रिया से ज़्यादा राजनीतिक खेल बन गया है?
इंटरएक्टिव सोच (Reader Engagement)
- क्या आप मानते हैं कि उपराष्ट्रपति को राजनीति से पूरी तरह अलग रहना चाहिए?
- या फिर यह स्वाभाविक है कि जिस दल के समर्थन से वे चुनकर आते हैं, उसके प्रति झुकाव दिखे?
Quick Facts तालिका
| पहलू (Aspect) | विवरण (Details) |
|---|---|
| संवैधानिक स्थिति | भारत के दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक पदाधिकारी |
| मुख्य भूमिका | राज्यसभा के सभापति और कार्यवाहक राष्ट्रपति |
| चुनाव प्रक्रिया | संसद के दोनों सदनों के सदस्य (संसदीय वोटिंग) |
| कार्यकाल | 5 वर्ष |
| महत्व | संवैधानिक गरिमा + राजनीतिक संतुलन |
उपराष्ट्रपति पद का संवैधानिक महत्व
भारत में उपराष्ट्रपति चुनाव (Uparashtrapati Chunav) केवल सत्ता परिवर्तन या औपचारिकता नहीं है, बल्कि यह हमारे लोकतंत्र के संतुलन को बनाए रखने वाली एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है।
संविधान में उपराष्ट्रपति की भूमिका
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 63 से 71 तक उपराष्ट्रपति की व्यवस्था दी गई है। इन अनुच्छेदों के अनुसार:
- भारत में हमेशा एक उपराष्ट्रपति होना आवश्यक है।
- उनका चुनाव संसद के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा होता है।
- वे पाँच वर्ष तक पद पर बने रहते हैं।
- अनुपस्थिति या रिक्ति की स्थिति में वे कार्यवाहक राष्ट्रपति बन जाते हैं।
- सबसे महत्वपूर्ण – वे राज्यसभा के सभापति (Chairman of Rajya Sabha) होते हैं।
👉 यानी, जहाँ राष्ट्रपति अधिकतर औपचारिक और प्रतिनिधिक भूमिका निभाते हैं, वहीं उपराष्ट्रपति का कार्य प्रत्यक्ष रूप से संसद की कार्यप्रणाली (Parliamentary Functioning) से जुड़ा होता है।
राज्यसभा और उपराष्ट्रपति का संबंध
राज्यसभा को अक्सर “स्थायी सदन” कहा जाता है, क्योंकि यह कभी भंग नहीं होती। इसके संचालन की जिम्मेदारी उपराष्ट्रपति पर होती है।
मुख्य कार्य:
- विधेयकों पर चर्चा का निष्पक्ष संचालन
- सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच संतुलन
- शोरगुल या विरोध के दौरान व्यवस्था बनाए रखना
- संसदीय परंपरा और गरिमा की रक्षा करना
क्या आप जानते हैं?
भारतीय संसदीय इतिहास में कई बार राज्यसभा में गरमागरम बहस और टकराव हुए, जिनमें उपराष्ट्रपति ने निर्णायक भूमिका निभाई। उनकी एक छोटी-सी टिप्पणी भी राजनीतिक संदेश बन जाती है।
ऐतिहासिक संदर्भ: पहले उपराष्ट्रपति से आज तक
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1952–1962)
- भारत के पहले उपराष्ट्रपति।
- दार्शनिक और विद्वान।
- उन्होंने इस पद की गरिमा को केवल औपचारिकता से ऊपर उठाकर बौद्धिक नेतृत्व का स्वरूप दिया।
ज़ाकिर हुसैन, बी.डी. जत्ती, आर. वेंकटरमण
- कई उपराष्ट्रपति बाद में राष्ट्रपति भी बने।
- यह दर्शाता है कि यह पद राष्ट्रपति बनने की सीढ़ी भी है।
हाल के उदाहरण
- हामिद अंसारी (2007–2017) ने अपने कार्यकाल में विपक्ष की आवाज़ को महत्व दिया।
- वेंकैया नायडू (2017–2022) ने संसदीय अनुशासन पर ज़ोर दिया।
- जगदीप धनखड़ (2022–2025) के कार्यकाल में केंद्र और विपक्ष के बीच कई बार तनाव देखने को मिला।
👉 यह सिलसिला बताता है कि हर उपराष्ट्रपति का कार्यकाल भारतीय लोकतंत्र के बदलते राजनीतिक समीकरणों की झलक देता है।
उपराष्ट्रपति चुनाव और राजनीतिक संदेश
इतिहास गवाह है कि उपराष्ट्रपति चुनाव सिर्फ संवैधानिक पद भरने का मामला नहीं रहा, बल्कि हर बार यह किसी न किसी राजनीतिक संकेत (Political Signal) से जुड़ा रहा है।
उदाहरण (Comparison Table)
| कालखंड | उपराष्ट्रपति उम्मीदवार | राजनीतिक संदेश |
|---|---|---|
| 1952 | डॉ. राधाकृष्णन | विद्वत्ता और राष्ट्रीय एकता |
| 1987 | शंकर दयाल शर्मा | कांग्रेस की स्थिरता और निरंतरता |
| 2002 | भैरोसिंह शेखावत | विपक्षी ताक़त का प्रदर्शन |
| 2007 | हामिद अंसारी | अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व और उदार छवि |
| 2017 | वेंकैया नायडू | दक्षिण भारत से भाजपा का उभार |
| 2022 | जगदीप धनखड़ | किसान आंदोलन और न्यायिक बहस के बीच संदेश |
उपराष्ट्रपति और लोकतांत्रिक संतुलन
क्यों यह चुनाव इतना महत्वपूर्ण है?
- क्योंकि यह संसद के दोनों सदनों के बीच सेतु का कार्य करता है।
- क्योंकि राज्यसभा में विपक्ष अक्सर मजबूत होता है और वहाँ संतुलन बनाए रखना उपराष्ट्रपति की असली परीक्षा होती है।
- क्योंकि यह चुनाव कभी भी केवल व्यक्ति का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की दिशा का प्रतीक होता है।
इंटरएक्टिव प्रश्न
- क्या उपराष्ट्रपति का पद राजनीति से पूरी तरह अलग रह सकता है?
- या फिर यह पद हमेशा सत्ता और विपक्ष की खींचतान का हिस्सा बनेगा?
- क्या आज भी उपराष्ट्रपति उतने ही “विद्वान और निष्पक्ष” माने जाते हैं, जितने शुरुआती दशकों में?
उपराष्ट्रपति चुनाव और राजनीतिक दांवपेंच
संविधान ने उपराष्ट्रपति पद को भले ही निष्पक्ष और तटस्थ रखने की अपेक्षा की हो, लेकिन व्यावहारिक राजनीति में यह पद कई बार राजनीतिक समीकरण (Political Equations) और रणनीतिक दांवपेंच (Strategic Moves) का केंद्र बन जाता है।
सत्ता पक्ष की रणनीति
- यदि सरकार के पास मजबूत बहुमत है, तो उपराष्ट्रपति चुनाव उसके लिए अपनी ताक़त का प्रदर्शन करने का मौका होता है।
- उम्मीदवार का चयन क्षेत्रीय और सामाजिक संतुलन साधने के लिए किया जाता है।
- कई बार इस पद के माध्यम से सहयोगी दलों को भी खुश किया जाता है।
विपक्ष की रणनीति
- विपक्ष के लिए यह चुनाव एकजुटता दिखाने का मंच है।
- चाहे जीत न मिले, लेकिन विपक्ष कोशिश करता है कि इस चुनाव से सरकार की कमजोरियों को उजागर (Expose Weaknesses) किया जाए।
- उदाहरण: जब-जब विपक्ष ने संयुक्त उम्मीदवार उतारे, उसने यह संदेश देने की कोशिश की कि सरकार के खिलाफ वैकल्पिक गठबंधन मौजूद है।
गठबंधन की राजनीति और उपराष्ट्रपति चुनाव
भारतीय राजनीति में पिछले तीन दशकों से गठबंधन की राजनीति का दौर चल रहा है। ऐसे में उपराष्ट्रपति चुनाव भी सिर्फ संसद का मामला नहीं, बल्कि गठबंधन की मजबूती या कमजोरी का परीक्षण बन जाता है।
मुख्य बिंदु (Bullet Points):
- सत्ता पक्ष को अपने सभी सहयोगियों को साधना पड़ता है।
- विपक्ष यह देखता है कि क्या सत्ता गठबंधन में दरार है।
- छोटे दल इस मौके पर अपनी राजनीतिक कीमत (Political Bargaining Power) बढ़ाने की कोशिश करते हैं।
- यदि कोई दल सत्ता पक्ष या विपक्ष का साथ न देकर न्यूट्रल रहता है, तो उसका महत्व और बढ़ जाता है।
दक्षिण भारत का फैक्टर
पिछले कुछ चुनावों में उपराष्ट्रपति चुनाव ने दक्षिण भारत (South India) की राजनीति को भी राष्ट्रीय फोकस में ला दिया है।
क्यों है दक्षिण इतना अहम?
- दक्षिण भारत (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, कर्नाटक) की संसद में अच्छी-खासी सीटें हैं।
- यहाँ भाजपा को पारंपरिक रूप से उतनी मजबूती नहीं मिली, जितनी उत्तर और पश्चिम भारत में।
- ऐसे में दक्षिण भारत से उपराष्ट्रपति उम्मीदवार चुनना भाजपा और अन्य दलों के लिए एक रणनीतिक संदेश (Strategic Signal) होता है।
तुलना (Comparison Table):
| पहलू | उत्तर भारत का दृष्टिकोण | दक्षिण भारत का दृष्टिकोण |
|---|---|---|
| राजनीति का आधार | जातीय और धार्मिक समीकरण | क्षेत्रीय पहचान और भाषा |
| राष्ट्रीय दलों की स्थिति | भाजपा और कांग्रेस मजबूत | क्षेत्रीय दल हावी |
| उपराष्ट्रपति चुनाव में रणनीति | सहयोगियों के साथ शक्ति प्रदर्शन | अस्मिता और प्रतिनिधित्व का संदेश |
अस्मिता की राजनीति (Politics of Identity)
- यदि उम्मीदवार तमिलनाडु से है, तो संदेश तमिल अस्मिता को साधने का होता है।
- यदि उम्मीदवार आंध्र प्रदेश या तेलंगाना से है, तो यह तेलुगु अस्मिता (Telugu Identity) पर केंद्रित हो जाता है।
- इसी तरह कर्नाटक या केरल से उम्मीदवार चुनना वहाँ की राजनीतिक ज़मीन पर निवेश माना जाता है।
👉 नतीजा यह होता है कि उपराष्ट्रपति चुनाव महज़ दिल्ली तक सीमित न रहकर पूरे दक्षिण भारत की राजनीति को प्रभावित करता है।
गठबंधन और दक्षिण भारत का संगम
कई बार देखा गया है कि:
- दक्षिण भारत से उपराष्ट्रपति उम्मीदवार चुनकर सत्ता पक्ष अपने सबसे बड़े सहयोगी दलों को संकेत देता है।
- विपक्ष भी दक्षिण भारत से उम्मीदवार उतारकर मुकाबले को “दक्षिण बनाम दक्षिण” बना देता है।
- इस प्रक्रिया में छोटे दलों की भूमिका किंगमेकर (Kingmaker) जैसी हो जाती है।
सोचिए:
अगर किसी उपराष्ट्रपति चुनाव में एक उम्मीदवार तमिल है और दूसरा तेलुगु — तो किसके पक्ष में दक्षिण भारतीय दल झुकेंगे? यही चुनाव को दिलचस्प बना देता है।
राजनीति बनाम संवैधानिक आदर्श
यहाँ एक बड़ा सवाल हमेशा खड़ा होता है –
- क्या उपराष्ट्रपति चुनाव केवल संवैधानिक गरिमा (Constitutional Dignity) के लिए होना चाहिए?
- या फिर यह स्वाभाविक है कि इसमें राजनीतिक संदेश और क्षेत्रीय संतुलन भी झलकेंगे?
👉 यथार्थ यह है कि दोनों पहलू साथ-साथ चलते हैं। संविधान कहता है कि उपराष्ट्रपति निष्पक्ष रहें, लेकिन उन्हें चुनने की प्रक्रिया इतनी राजनीतिक है कि पूर्ण निष्पक्षता की उम्मीद करना कठिन हो जाता है।
Quick Recap (मुख्य बातें)
- उपराष्ट्रपति चुनाव सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए रणनीतिक महत्व रखता है।
- गठबंधन की राजनीति इसे और जटिल बना देती है।
- दक्षिण भारत की भूमिका अब निर्णायक होती जा रही है।
- यह चुनाव संवैधानिक गरिमा और राजनीतिक दांवपेंच – दोनों का मिश्रण है।
भविष्य की चुनौतियाँ: उपराष्ट्रपति के सामने
हर उपराष्ट्रपति के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही रहती है कि वे संवैधानिक गरिमा (Constitutional Dignity) और राजनीतिक वास्तविकता (Political Reality) के बीच संतुलन कैसे साधें।
1. राज्यसभा में विपक्ष की ताक़त
राज्यसभा अक्सर उस दौर में और भी अहम हो जाती है जब लोकसभा में सत्ता पक्ष बहुत मज़बूत होता है। विपक्ष यहाँ अपनी आवाज़ बुलंद करता है।
- उपराष्ट्रपति को सुनिश्चित करना पड़ता है कि बहस निष्पक्ष चले।
- सत्ता पक्ष चाहता है कि विधेयक आसानी से पारित हों।
- विपक्ष चाहता है कि उसकी आपत्तियों को नज़रअंदाज़ न किया जाए।
👉 ऐसे में उपराष्ट्रपति का हर फैसला राजनीतिक हलकों में चर्चा और आलोचना का विषय बनता है।
2. संसद की गरिमा बनाए रखना
पिछले कुछ वर्षों में संसद की कार्यवाही कई बार शोरगुल, वॉकआउट और नारेबाजी के कारण बाधित हुई है।
- उपराष्ट्रपति को अनुशासन (Discipline) और लोकतांत्रिक संवाद (Dialogue), दोनों पर ध्यान देना पड़ता है।
- यदि वे बहुत सख़्त होते हैं तो विपक्ष नाराज़ होता है।
- यदि वे ढीले पड़ते हैं तो सत्ता पक्ष असंतुष्ट हो जाता है।
3. तटस्थता की कसौटी
संविधान अपेक्षा करता है कि उपराष्ट्रपति तटस्थ रहें। लेकिन व्यावहारिक राजनीति में उनसे यही सवाल पूछा जाता है कि –
- क्या वे सत्ता पक्ष के “अनुगामी” होंगे?
- या सचमुच विपक्ष की आवाज़ को भी बराबरी देंगे?
लोकतांत्रिक सबक
उपराष्ट्रपति चुनाव से हमें भारतीय लोकतंत्र के कई महत्वपूर्ण सबक मिलते हैं:
- लोकतांत्रिक संस्थानों की मजबूती
- चुनाव यह दिखाता है कि संसद अब भी संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने की क्षमता रखती है।
- सहयोगी दलों की भूमिका
- यह चुनाव छोटे दलों को भी “किंगमेकर” बनने का अवसर देता है।
- यही भारत की गठबंधन राजनीति (Coalition Politics) का सार है।
- क्षेत्रीय अस्मिता का महत्व
- तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयाली पहचान अब केवल राज्य तक सीमित नहीं।
- राष्ट्रीय राजनीति में भी इनकी गूंज सुनाई देती है।
- राजनीति बनाम संविधान का द्वंद्व
- यह पद हर बार हमें याद दिलाता है कि राजनीति (Politics) और संविधान (Constitution) के बीच संघर्ष और संतुलन दोनों मौजूद हैं।
तुलना: राष्ट्रपति बनाम उपराष्ट्रपति
| पहलू (Aspect) | राष्ट्रपति (President) | उपराष्ट्रपति (Vice President) |
|---|---|---|
| चुनाव प्रक्रिया | संसद + राज्य विधानसभाओं द्वारा | केवल संसद के दोनों सदनों द्वारा |
| भूमिका | राष्ट्र प्रमुख (Head of State) | राज्यसभा सभापति + कार्यवाहक राष्ट्रपति |
| प्रमुखता | औपचारिक और प्रतीकात्मक | व्यावहारिक और संसदीय संचालन केंद्रित |
| राजनीतिक प्रभाव | अपेक्षाकृत सीमित | प्रत्यक्ष, संसद की कार्यवाही पर असर |
👉 इस तुलना से स्पष्ट है कि भले ही राष्ट्रपति “ऊँचे” पद पर हों, लेकिन उपराष्ट्रपति का प्रभाव ज़्यादा प्रत्यक्ष और रोज़ाना दिखने वाला होता है।
इंटरएक्टिव एंगल (Reader Engagement)
- क्या आपको लगता है कि आने वाले समय में उपराष्ट्रपति की भूमिका और भी राजनीतिक हो जाएगी?
- या फिर हमें ऐसे उपराष्ट्रपति चाहिए जो सिर्फ और सिर्फ संवैधानिक आदर्श के आधार पर निर्णय लें?
- यदि आप सांसद होते, तो किस तरह के उम्मीदवार को वोट देते — अनुभवी राजनीतिज्ञ या स्वतंत्र विद्वान?
Evergreen निष्कर्ष
उपराष्ट्रपति चुनाव (Uparashtrapati Chunav) हमें बार-बार यह याद दिलाता है कि लोकतंत्र केवल संविधान की किताब में नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की राजनीतिक प्रक्रियाओं में जीवित है।
- यह चुनाव दिखाता है कि सत्ता और विपक्ष कितने मजबूत हैं।
- यह चुनाव बताता है कि क्षेत्रीय अस्मिता और गठबंधन की राजनीति कैसे राष्ट्रीय फैसलों को प्रभावित करती है।
- यह चुनाव हमें सिखाता है कि तटस्थता और निष्पक्षता केवल आदर्श नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक अस्तित्व की अनिवार्यता है।
👉 इसलिए, हर उपराष्ट्रपति चुनाव केवल किसी व्यक्ति के चयन की प्रक्रिया नहीं होता। यह भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान और भविष्य की दिशा का आईना (Mirror) होता है।
यदि आपको लगता है कि भारत का लोकतंत्र तभी मज़बूत होगा जब उसके संवैधानिक पद तटस्थ और गरिमामय बने रहें — तो इस लेख को अपने मित्रों और सोशल मीडिया समूहों में साझा करें।
और हाँ, अगली बार जब उपराष्ट्रपति चुनाव की खबरें आएं, तो उसे केवल “राजनीतिक घटना” न मानें, बल्कि लोकतांत्रिक सबक के रूप में देखें।
